नाथुराम गोडसे (दायाँ) र नाना आप्टे |
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गाँधी के बारे में कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यकीन ही नहीं होगा कि हाड़-माँस का ये व्यक्ति कभी पृथ्वी पर चला भी होगा. 30 जनवरी 1948 को शाम पाँच बजकर पंद्रह मिनट पर जब गाँधी लगभग भागते हुए बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल की तरफ़ बढ़ रहे थे, तो उनके स्टाफ़ के एक सदस्य गुरबचन सिंह ने अपनी घड़ी की तरफ़ देखते हुए कहा था, ''बापू आज आपको थोड़ी देर हो गई.''
गाँधी ने चलते-चलते ही हंसते हुए जवाब दिया था, ''जो लोग देर करते हैं उन्हें सज़ा मिलती है.'' दो मिनट बाद ही नथूराम गोडसे ने अपनी बेरेटा पिस्टल की तीन गोलियाँ महात्मा गाँधी के शरीर में उतार दी थीं. मोहनदास करमचंद गाँधी की मौत की ख़बर मिलते ही उस ज़माने में 'अंजाम' अख़बार के लिए काम करने वाले पत्रकार कुलदीप नैयर मोटर साइकिल से बिरला हाउस पहुंचे थे. कुलदीप नैयर याद करते हैं, ''जब मैं वहाँ पहुंचा तो वहाँ कोई सिक्योरिटी नहीं थी. बिरला हाउस का गेट हमेशा की तरह खुला हुआ था. उस समय मैंने जवाहरलाल नेहरू को देखा. सरदार पटेल को देखा. मौलाना आज़ाद कुर्सी पर बैठे हुए थे ग़मगीन.
माउंटबेटन मेरे सामने ही आए. उन्होंने आते ही गाँधी के पार्थिव शरीर को सैल्यूट किया. माउंटबेटन को देखते ही एक व्यक्ति चिल्लाया- 'गाँधी को एक मुसलमान ने मारा है'. माउंटबेटन ने ग़ुस्से में जवाब दिया- 'यू फ़ूल, डोन्ट यू नो, इट वॉज़ ए हिंदू!' मैं पीछे चला गया और मैंने महसूस किया कि इतिहास यहीं पर फूट रहा है. मैंने ये भी महसूस किया कि आज हमारे सिर पर हाथ रखने वाला कोई नहीं है. कुलदीप नैयर कहते हैं, ''बापू हमारे ग़मों का प्रतिनिधित्व करते थे, हमारी ख़ुशियों का और हमारी आकांक्षाओं का भी. हमें ये ज़रूर लगा कि हमारे ग़म ने हमें इकट्ठा कर दिया है. इतने में मैंने देखा कि नेहरू छलांग लगाकर दीवार पर चढ़ गए और उन्होंने घोषणा की कि गांधी अब इस दुनिया में नहीं हैं.''
माउंटबेटन मेरे सामने ही आए. उन्होंने आते ही गाँधी के पार्थिव शरीर को सैल्यूट किया. माउंटबेटन को देखते ही एक व्यक्ति चिल्लाया- 'गाँधी को एक मुसलमान ने मारा है'. माउंटबेटन ने ग़ुस्से में जवाब दिया- 'यू फ़ूल, डोन्ट यू नो, इट वॉज़ ए हिंदू!' मैं पीछे चला गया और मैंने महसूस किया कि इतिहास यहीं पर फूट रहा है. मैंने ये भी महसूस किया कि आज हमारे सिर पर हाथ रखने वाला कोई नहीं है. कुलदीप नैयर कहते हैं, ''बापू हमारे ग़मों का प्रतिनिधित्व करते थे, हमारी ख़ुशियों का और हमारी आकांक्षाओं का भी. हमें ये ज़रूर लगा कि हमारे ग़म ने हमें इकट्ठा कर दिया है. इतने में मैंने देखा कि नेहरू छलांग लगाकर दीवार पर चढ़ गए और उन्होंने घोषणा की कि गांधी अब इस दुनिया में नहीं हैं.''
(बाएं से दाएं बैठ हुए नाना आप्टे, दामोदर सावरकर, नथूराम गोडसे, विष्णुपंत करकरे, दिगम्बर बडगे, मदनलाल पहावा, गोपाल गोडसे, शंकर किस्तय्या)
लाल क़िले में चले मुक़दमे में न्यायाधीश आत्मचरण की अदालत ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सज़ा सुनाई. बाक़ी पाँच लोगों विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, गोपाल गोडसे और दत्तारिह परचुरे को उम्रकैद की सज़ा मिली. बाद में हाईकोर्ट ने किस्तैया और परचुरे को बरी कर दिया. अदालत में गोडसे ने स्वीकार किया कि उन्होंने ही गांधी को मारा है. अपना पक्ष रखते हुए गोडसे ने कहा, ''गांधी जी ने देश की जो सेवा की है, उसका मैं आदर करता हूँ. उनपर गोली चलाने से पूर्व मैं उनके सम्मान में इसीलिए नतमस्तक हुआ था किंतु जनता को धोखा देकर पूज्य मातृभूमि के विभाजन का अधिकार किसी बड़े से बड़े महात्मा को भी नहीं है. गाँधी जी ने देश को छल कर देश के टुकड़े किए. क्योंकि ऐसा न्यायालय और कानून नहीं था जिसके आधार पर ऐसे अपराधी को दंड दिया जा सकता, इसीलिए मैंने गाँधी को गोली मारी.''
गोडसे की गांधी के बेटे से मुलाक़ात
नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अपनी किताब 'गांधी वध और मैं' में लिखा है कि जब गोडसे संसद मार्ग थाने में बंद थे तो सीखचों के पीछे खड़े गोडसे को देखने कई लोग आया करते थे. एक बार सीखचों के बाहर खड़े एक व्यक्ति से नथूराम की आखें मिलीं.
नथूराम ने कहा, ''मैं समझता हूँ आप देवदास गाँधी हैं.'' ''हाँ, आप कैसे पहचानते हैं?'' गाँधी के पुत्र ने जवाब दिया. गोडसे ने कहा, ''मैंने आपको एक संवाददाता सम्मेलन में देखा था. आप आज पितृविहीन हो चुके है और उसका कारण बना हूँ मैं. आप पर और आपके परिवार पर जो वज्रपात हुआ है उसका मुझे खेद है. लेकिन आप विश्वास करें, किसी व्यक्तिगत शत्रुता की वजह से मैंने ऐसा नहीं किया है.''
बाद में देवदास ने नथूराम को एक पत्र लिखा था, ''आपने मेरे पिता की नाशवान देह का ही अंत किया है और कुछ नहीं. इसका ज्ञान आपको एक दिन होगा क्योंकि मुझ पर ही नहीं संपूर्ण संसार के लाखों लोगों के दिलों में उनके विचार अभी तक विद्यमान हैं और हमेशा रहेंगे.''
गोडसे की आख़िरी मुलाकात
अंबाला जेल में नथूराम और आप्टे को B श्रेणी दी गई थी. नथूराम कॉफ़ी पीने के शौकीन थे और जासूसी नॉवेल पढ़ने के भी. वो छुरी-काँटे से खाना पसंद करते थे लेकिन जेल में उन्हें ये सुविधा नहीं मिली थी. 15 नवंबर 1949 को जब गोडसे को फाँसी दी जा रही थी उससे एक दिन पहले उनके परिजन उनसे मिलने अंबाला जेल पहुंचे.
उनमें से एक थीं गोडसे की भतीजी और गोपाल गोडसे की पुत्री हिमानी सावरकर. हिमानी याद करती हैं, ''ताऊजी की फाँसी से एक दिन पहले मैं अपनी माँ के साथ उनसे मिलने अंबाला जेल गई थी. उस समय मैं सिर्फ़ ढाई साल की थी. मुझे वहीं भूख लगी. मैं माँ से कहने लगी कि मुझे कुछ खाने को चाहिए. मुझे स्मरण है कि मेरे सामने एक हाथ बढ़ा था. उनके हाथों में लड्डू और नीले रंग के गिलास में दूध था. बाद में मैंने अपनी माँ से पूछा था कि किसने मुझे वो लडडू दिया था तो मेरी माँ ने बताया था कि वो मेरे ताऊ नाथूराम गोडसे थे.''
हत्या के निजी कारण नहीं
(गांधी जी की हत्या करते समय नथूराम ने यही कपड़े थे और ये वो गीता है जो फांसी पर जाने से पहले नथूराम के पास थी.)
हिमानी का मानना है कि गोडसे ने गाँधी की हत्या पूरे होशो-हवास में की थी और उसके पीछे उनके निजी कारण नहीं थे.
वो कहती हैं, ''जब इतिहास की किताबों में आता है कि नाथूराम गोडसे एक सिरफिरा आदमी था जिसने गाँधी जी की हत्या की थी, तो मुझे भी बहुत दुख होता था. धीरे-धीरे मुझे पता चला कि वो सिरफिरे बिल्कुल नहीं थे. वो एक अख़बार के संपादक थे. उन दिनों उनके पास अपनी मोटर गाड़ी थी. उनका और गाँधीजी का कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं था. वो पुणे में रहते थे जहाँ देश विभाजन का कोई असर नहीं हुआ था. वो फिर भी गाँधी को मारने गए, उसका एक मात्र कारण यही था कि वो मानते थे कि पंजाब और बंगाल की माँ-बहनें मेरी भी कुछ लगती हैं और उनके आँसू पोछना मेरा कर्तव्य है.''
अस्थियाँ अभी भी सुरक्षित
15 नवंबर 1949 को जब नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी के लिए ले जाया गया तो उनके एक हाथ में गीता और अखंड भारत का नक्शा था और दूसरे हाथ में भगवा ध्वज. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि फाँसी का फंदा पहनाए जाने से पहले उन्होंने 'नमस्ते सदा वत्सले' का उच्चारण किया और नारे लगाए. मैंने हिमानी सावरकर से पूछा कि फाँसी होने के बाद नाथूराम का अंतिम संस्कार किसने किया?
हिमानी ने बताया, ''हमें उनका शव नहीं दिया गया. वहीं अंदर ही अंदर एक गाड़ी में डालकर उन्हें पास की घग्घर नदी ले जाया गया. वहीं सरकार ने उनका अंतिम संस्कार किया. लेकिन हमारी हिंदू महासभा के अत्री नाम के एक कार्यकर्ता पीछे-पीछे गए थे. जब अग्नि शांत हो गई तो उन्होंने एक डिब्बे में उनकी अस्थियाँ समाहित कर लीं. हमने उनकी अस्थियों को अभी तक सुरक्षित रखा है.
हर 15 नवंबर को हम गोडसे सदन में कार्यक्रम करते हैं शाम छह से आठ बजे तक. वहाँ हम उनके मृत्यु-पत्र को पढ़कर लोगों को सुनाते हैं. उनकी अंतिम इच्छा भी हमारी अगली पीढ़ी के बच्चों को कंठस्थ है.'' गोडसे परिवार ने उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी अस्थियों को अभी तक चाँदी के एक कलश में सुरक्षित रखा गया है. हिमानी कहती हैं, ''उन्होंने लिखकर दिया था कि मेरे शरीर के कुछ हिस्से को संभाल कर रखो और जब सिंधु नदी स्वतंत्र भारत में फिर से समाहित हो जाए और फिर से अखंड भारत का निर्माण हो जाए, तब मेरी अस्थियां उसमें प्रवाहित कीजिए. इसमें दो-चार पीढ़ियाँ भी लग जाएं तो कोई बात नहीं.''
समाज ने बहिष्कार किया
कुर्ता-पाजाम में नाना गोडसे (नाथूराम के भतीजे), अजिंक्य गोडसे (गोडसे के पौत्र), श्रीमति नाना गोडसे, श्रीमति अजिंक्य गोडसे.
मैंने हिमानी सावरकर से पूछा कि गोडसे की फाँसी का आपके परिवार पर क्या असर पड़ा? क्या लोगों ने आपसे मिलना या बातचीत करना छोड़ दिया?
इस सवाल पर हिमानी कहती हैं, ''लोग भयभीत थे और हमसे दूर रहते थे क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि उनका और हमारा परिचय किसी को पता चले. हम जब स्कूल जाते थे तो सहेलियाँ कहती थीं कि इसके ताऊजी ने गाँधी को मारा है. समाज ने हमारे साथ ऐसा बर्ताव किया जैसे हम अछूत हों. मेरे पिता के जेल से छूटने के बाद जब उन्होंने अपनी पुस्तकें प्रकाशित कीं तब लोगों को लगा कि इनका भी कोई मत हो सकता है. फिर धीरे-धीरे लोग हमारे घरों में आने लगे.''
गोडसे की भाभी की मोरारजी देसाई से मुलाकात
नाथूराम गोडसे के भतीजे नाना गोडसे कहते हैं कि उनकी माँ को ये पेशकश की गई थी कि अगर वो अपना सरनेम बदल लें तो उनके साथ बेहतर व्यवहार होने लगेगा लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया.
नाना गोडसे याद करते हैं, ''एक बार मोरारजी देसाई एक सरकारी बंगले में बैठे हुए थे. मेरी माँ उनसे मिलने गईं. मैं भी उनके साथ था. उन्होंने कहा कि अगर आप अपना नाम बदल दें तो मैं आपको बहुत सारा काम दिलवा सकता हूँ. हमारा फ़ैब्रीकेशन का काम था. मेरी माँ ने कहा कि नाम बदलने के बाद मुझे आपसे कोई काम नहीं चाहिए. मैं अपने मेरिट पर काम लूंगी. मोरारजी ने कहा कि फिर तो आपको सरकारी काम कुछ भी नहीं मिलेगा. मेरी माँ हँस पड़ी. उन्होंने कहा कि आप क्यों हंस रही हैं ? मेरी माँ ने कहा कि जिस बंगले में आप बैठे हुए हैं उसका पूरा ग्रिल वर्क मैंने किया है. मोरारजी ये सुनकर हैरान रह गए थे.''
तीसरी पीढ़ी को गोडसे परिवार पर गर्व
मैंने गोडसे की तीसरी पीढ़ी के सदस्य अजिंक्य गोडसे से पूछा कि क्या आप मानते हैं कि आपके दादा ने गांधी जी के साथ 67 साल पहले जो किया वो सही था ? अजिंक्य का जवाब था, ''मुझे उस परिवार पर बहुत गर्व है जिसमें मेरा जन्म हुआ है. मुझे लगता है कि मेरे दादाजी ने जो किया है वो देश के लिए बेहतरीन काम किया है. कुछ सालों के बाद ही लोगों को समझ में आएगा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया.''
गांधी बनाम गोडसे
ये तो रहा गोडसे परिवार का पक्ष. हाल के दिनों में 'गोडसेवाद' को महिमामंडित करने की कोशिशों पर सब की नज़र गई है. 'गोडसेज़ चिल्ड्रन' किताब के लेखक सुभाष गताड़े इसे एक अच्छी परिपाटी नहीं मानते. गताड़े कहते हैं, ''ये एक तरह से आतंकवाद को ग्लोरिफ़ाई करने का मामला है. मैं नाथूराम गोडसे को आज़ाद हिंदुस्तान का पहला आतंकवादी मानता हूँ. अगर आप महाराष्ट्र जाएं तो पाएंगे कि बड़े स्तर पर नहीं छोटे स्तर पर ही हर 15 नवंबर को गोडसे का शहादत दिवस मनाया जाता है. ये दिलचस्प बात है कि एक तरफ़ आप गाँधी को अपने से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ आप उनके हत्यारे गोडसे को ग्लोरिफ़ाई कर रहे हैं. इससे उनकी मानसिकता पता चलती है. मैं समझता हूँ कि हमारे मुल्क में जिस तरह भिंडरावाले को ग्लोरिफ़ाई नहीं किया जा सकता उसी तरह गोडसे को भी ग्लोरिफ़ाई नहीं किया जा सकता.''
गाँधी ने तीन गोलियों को रोका
महात्मा गाँधी के पौत्र गोपाल गांधी का कहना है कि उनके परिवार की गोडसे से कोई कटुता नहीं है. गाँधी के पुत्र देवदास गाँधी ने तो गोडसे को क्षमादान देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था.
गोपाल गाँधी कहते हैं, ''एक मामूली आदमी ने बहुत अच्छी तरह कहा था कि हमारे धर्म ही नहीं बंट गए हैं बल्कि हमारी शहादत भी बंट गई है. 30 जनवरी 1948 को गाँधी की मौत ऐसी मौत थी जिसे देखने के लिए आकाश में देवता तक इकट्ठा हो गए होंगे. प्रार्थना के लिए गाँधी दौड़े-दौड़े जा रहे हैं, चलकर भी नहीं और बीच में उनको रोका जाता है. हम शायद इसको किसी और ढंग से भी देख सकते हैं.... ये नहीं कि तीन गोलियों ने गाँधीजी को रोका...शायद गांधीजी ने उन तीन गोलियों को रोका...अपने मार्ग में... ताकि वो और न फैलें...किसी और पर न पड़ें और घृणा का उसी क्षण अंत हो जाए.''
(नाथूराम गोडसे का परिवार उन्हें नथूराम ही कहता था और इसके पीछे एक लंबी कहानी है. परिवार के अनुसार नथूराम से पहले घर में जो लड़के पैदा होते थे उनकी मौत हो जाती थी इसे देखते हुए जब नथू पैदा हुए तो उन्हें लड़की की तरह पाला गया और नथ पहनाई गई. इस नथ के कारण उन्हें नथूराम ही कहा जाता रहा. लेकिन आगे चलकर अंग्रेज़ी में लिखी गई स्पेलिंग के कारण नथूराम....नाथूराम हो गए और अब उनका यही नाम प्रचलित हो गया है)
फाँसीमा झुन्डिनु अघि गोडसे (दायाँ) को अन्तिम तस्बिर |
गोडसे की गांधी के बेटे से मुलाक़ात
नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अपनी किताब 'गांधी वध और मैं' में लिखा है कि जब गोडसे संसद मार्ग थाने में बंद थे तो सीखचों के पीछे खड़े गोडसे को देखने कई लोग आया करते थे. एक बार सीखचों के बाहर खड़े एक व्यक्ति से नथूराम की आखें मिलीं.
नथूराम ने कहा, ''मैं समझता हूँ आप देवदास गाँधी हैं.'' ''हाँ, आप कैसे पहचानते हैं?'' गाँधी के पुत्र ने जवाब दिया. गोडसे ने कहा, ''मैंने आपको एक संवाददाता सम्मेलन में देखा था. आप आज पितृविहीन हो चुके है और उसका कारण बना हूँ मैं. आप पर और आपके परिवार पर जो वज्रपात हुआ है उसका मुझे खेद है. लेकिन आप विश्वास करें, किसी व्यक्तिगत शत्रुता की वजह से मैंने ऐसा नहीं किया है.''
बाद में देवदास ने नथूराम को एक पत्र लिखा था, ''आपने मेरे पिता की नाशवान देह का ही अंत किया है और कुछ नहीं. इसका ज्ञान आपको एक दिन होगा क्योंकि मुझ पर ही नहीं संपूर्ण संसार के लाखों लोगों के दिलों में उनके विचार अभी तक विद्यमान हैं और हमेशा रहेंगे.''
गोडसे की आख़िरी मुलाकात
अंबाला जेल में नथूराम और आप्टे को B श्रेणी दी गई थी. नथूराम कॉफ़ी पीने के शौकीन थे और जासूसी नॉवेल पढ़ने के भी. वो छुरी-काँटे से खाना पसंद करते थे लेकिन जेल में उन्हें ये सुविधा नहीं मिली थी. 15 नवंबर 1949 को जब गोडसे को फाँसी दी जा रही थी उससे एक दिन पहले उनके परिजन उनसे मिलने अंबाला जेल पहुंचे.
उनमें से एक थीं गोडसे की भतीजी और गोपाल गोडसे की पुत्री हिमानी सावरकर. हिमानी याद करती हैं, ''ताऊजी की फाँसी से एक दिन पहले मैं अपनी माँ के साथ उनसे मिलने अंबाला जेल गई थी. उस समय मैं सिर्फ़ ढाई साल की थी. मुझे वहीं भूख लगी. मैं माँ से कहने लगी कि मुझे कुछ खाने को चाहिए. मुझे स्मरण है कि मेरे सामने एक हाथ बढ़ा था. उनके हाथों में लड्डू और नीले रंग के गिलास में दूध था. बाद में मैंने अपनी माँ से पूछा था कि किसने मुझे वो लडडू दिया था तो मेरी माँ ने बताया था कि वो मेरे ताऊ नाथूराम गोडसे थे.''
हत्या के निजी कारण नहीं
(गांधी जी की हत्या करते समय नथूराम ने यही कपड़े थे और ये वो गीता है जो फांसी पर जाने से पहले नथूराम के पास थी.)
हिमानी का मानना है कि गोडसे ने गाँधी की हत्या पूरे होशो-हवास में की थी और उसके पीछे उनके निजी कारण नहीं थे.
वो कहती हैं, ''जब इतिहास की किताबों में आता है कि नाथूराम गोडसे एक सिरफिरा आदमी था जिसने गाँधी जी की हत्या की थी, तो मुझे भी बहुत दुख होता था. धीरे-धीरे मुझे पता चला कि वो सिरफिरे बिल्कुल नहीं थे. वो एक अख़बार के संपादक थे. उन दिनों उनके पास अपनी मोटर गाड़ी थी. उनका और गाँधीजी का कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं था. वो पुणे में रहते थे जहाँ देश विभाजन का कोई असर नहीं हुआ था. वो फिर भी गाँधी को मारने गए, उसका एक मात्र कारण यही था कि वो मानते थे कि पंजाब और बंगाल की माँ-बहनें मेरी भी कुछ लगती हैं और उनके आँसू पोछना मेरा कर्तव्य है.''
अस्थियाँ अभी भी सुरक्षित
15 नवंबर 1949 को जब नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी के लिए ले जाया गया तो उनके एक हाथ में गीता और अखंड भारत का नक्शा था और दूसरे हाथ में भगवा ध्वज. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि फाँसी का फंदा पहनाए जाने से पहले उन्होंने 'नमस्ते सदा वत्सले' का उच्चारण किया और नारे लगाए. मैंने हिमानी सावरकर से पूछा कि फाँसी होने के बाद नाथूराम का अंतिम संस्कार किसने किया?
हिमानी ने बताया, ''हमें उनका शव नहीं दिया गया. वहीं अंदर ही अंदर एक गाड़ी में डालकर उन्हें पास की घग्घर नदी ले जाया गया. वहीं सरकार ने उनका अंतिम संस्कार किया. लेकिन हमारी हिंदू महासभा के अत्री नाम के एक कार्यकर्ता पीछे-पीछे गए थे. जब अग्नि शांत हो गई तो उन्होंने एक डिब्बे में उनकी अस्थियाँ समाहित कर लीं. हमने उनकी अस्थियों को अभी तक सुरक्षित रखा है.
हर 15 नवंबर को हम गोडसे सदन में कार्यक्रम करते हैं शाम छह से आठ बजे तक. वहाँ हम उनके मृत्यु-पत्र को पढ़कर लोगों को सुनाते हैं. उनकी अंतिम इच्छा भी हमारी अगली पीढ़ी के बच्चों को कंठस्थ है.'' गोडसे परिवार ने उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी अस्थियों को अभी तक चाँदी के एक कलश में सुरक्षित रखा गया है. हिमानी कहती हैं, ''उन्होंने लिखकर दिया था कि मेरे शरीर के कुछ हिस्से को संभाल कर रखो और जब सिंधु नदी स्वतंत्र भारत में फिर से समाहित हो जाए और फिर से अखंड भारत का निर्माण हो जाए, तब मेरी अस्थियां उसमें प्रवाहित कीजिए. इसमें दो-चार पीढ़ियाँ भी लग जाएं तो कोई बात नहीं.''
समाज ने बहिष्कार किया
कुर्ता-पाजाम में नाना गोडसे (नाथूराम के भतीजे), अजिंक्य गोडसे (गोडसे के पौत्र), श्रीमति नाना गोडसे, श्रीमति अजिंक्य गोडसे.
मैंने हिमानी सावरकर से पूछा कि गोडसे की फाँसी का आपके परिवार पर क्या असर पड़ा? क्या लोगों ने आपसे मिलना या बातचीत करना छोड़ दिया?
इस सवाल पर हिमानी कहती हैं, ''लोग भयभीत थे और हमसे दूर रहते थे क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि उनका और हमारा परिचय किसी को पता चले. हम जब स्कूल जाते थे तो सहेलियाँ कहती थीं कि इसके ताऊजी ने गाँधी को मारा है. समाज ने हमारे साथ ऐसा बर्ताव किया जैसे हम अछूत हों. मेरे पिता के जेल से छूटने के बाद जब उन्होंने अपनी पुस्तकें प्रकाशित कीं तब लोगों को लगा कि इनका भी कोई मत हो सकता है. फिर धीरे-धीरे लोग हमारे घरों में आने लगे.''
गोडसे की भाभी की मोरारजी देसाई से मुलाकात
नाथूराम गोडसे के भतीजे नाना गोडसे कहते हैं कि उनकी माँ को ये पेशकश की गई थी कि अगर वो अपना सरनेम बदल लें तो उनके साथ बेहतर व्यवहार होने लगेगा लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया.
नाना गोडसे याद करते हैं, ''एक बार मोरारजी देसाई एक सरकारी बंगले में बैठे हुए थे. मेरी माँ उनसे मिलने गईं. मैं भी उनके साथ था. उन्होंने कहा कि अगर आप अपना नाम बदल दें तो मैं आपको बहुत सारा काम दिलवा सकता हूँ. हमारा फ़ैब्रीकेशन का काम था. मेरी माँ ने कहा कि नाम बदलने के बाद मुझे आपसे कोई काम नहीं चाहिए. मैं अपने मेरिट पर काम लूंगी. मोरारजी ने कहा कि फिर तो आपको सरकारी काम कुछ भी नहीं मिलेगा. मेरी माँ हँस पड़ी. उन्होंने कहा कि आप क्यों हंस रही हैं ? मेरी माँ ने कहा कि जिस बंगले में आप बैठे हुए हैं उसका पूरा ग्रिल वर्क मैंने किया है. मोरारजी ये सुनकर हैरान रह गए थे.''
तीसरी पीढ़ी को गोडसे परिवार पर गर्व
मैंने गोडसे की तीसरी पीढ़ी के सदस्य अजिंक्य गोडसे से पूछा कि क्या आप मानते हैं कि आपके दादा ने गांधी जी के साथ 67 साल पहले जो किया वो सही था ? अजिंक्य का जवाब था, ''मुझे उस परिवार पर बहुत गर्व है जिसमें मेरा जन्म हुआ है. मुझे लगता है कि मेरे दादाजी ने जो किया है वो देश के लिए बेहतरीन काम किया है. कुछ सालों के बाद ही लोगों को समझ में आएगा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया.''
गांधी बनाम गोडसे
ये तो रहा गोडसे परिवार का पक्ष. हाल के दिनों में 'गोडसेवाद' को महिमामंडित करने की कोशिशों पर सब की नज़र गई है. 'गोडसेज़ चिल्ड्रन' किताब के लेखक सुभाष गताड़े इसे एक अच्छी परिपाटी नहीं मानते. गताड़े कहते हैं, ''ये एक तरह से आतंकवाद को ग्लोरिफ़ाई करने का मामला है. मैं नाथूराम गोडसे को आज़ाद हिंदुस्तान का पहला आतंकवादी मानता हूँ. अगर आप महाराष्ट्र जाएं तो पाएंगे कि बड़े स्तर पर नहीं छोटे स्तर पर ही हर 15 नवंबर को गोडसे का शहादत दिवस मनाया जाता है. ये दिलचस्प बात है कि एक तरफ़ आप गाँधी को अपने से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ आप उनके हत्यारे गोडसे को ग्लोरिफ़ाई कर रहे हैं. इससे उनकी मानसिकता पता चलती है. मैं समझता हूँ कि हमारे मुल्क में जिस तरह भिंडरावाले को ग्लोरिफ़ाई नहीं किया जा सकता उसी तरह गोडसे को भी ग्लोरिफ़ाई नहीं किया जा सकता.''
गाँधी ने तीन गोलियों को रोका
महात्मा गाँधी के पौत्र गोपाल गांधी का कहना है कि उनके परिवार की गोडसे से कोई कटुता नहीं है. गाँधी के पुत्र देवदास गाँधी ने तो गोडसे को क्षमादान देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था.
गोपाल गाँधी कहते हैं, ''एक मामूली आदमी ने बहुत अच्छी तरह कहा था कि हमारे धर्म ही नहीं बंट गए हैं बल्कि हमारी शहादत भी बंट गई है. 30 जनवरी 1948 को गाँधी की मौत ऐसी मौत थी जिसे देखने के लिए आकाश में देवता तक इकट्ठा हो गए होंगे. प्रार्थना के लिए गाँधी दौड़े-दौड़े जा रहे हैं, चलकर भी नहीं और बीच में उनको रोका जाता है. हम शायद इसको किसी और ढंग से भी देख सकते हैं.... ये नहीं कि तीन गोलियों ने गाँधीजी को रोका...शायद गांधीजी ने उन तीन गोलियों को रोका...अपने मार्ग में... ताकि वो और न फैलें...किसी और पर न पड़ें और घृणा का उसी क्षण अंत हो जाए.''
(नाथूराम गोडसे का परिवार उन्हें नथूराम ही कहता था और इसके पीछे एक लंबी कहानी है. परिवार के अनुसार नथूराम से पहले घर में जो लड़के पैदा होते थे उनकी मौत हो जाती थी इसे देखते हुए जब नथू पैदा हुए तो उन्हें लड़की की तरह पाला गया और नथ पहनाई गई. इस नथ के कारण उन्हें नथूराम ही कहा जाता रहा. लेकिन आगे चलकर अंग्रेज़ी में लिखी गई स्पेलिंग के कारण नथूराम....नाथूराम हो गए और अब उनका यही नाम प्रचलित हो गया है)
Post it in Nepali language.
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